आज भारत की पहली
महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले की उपलब्धियों के बारे में
बात करेंगे।
18वीं सदी में
महिलाओं का स्कूल जाना मुमकिन नहीं था। उस समय महिलाएं केवल घर पर ही रहती थी। उसी
समय की महिला सावित्रीबाई फुले ने न केवल खुद स्कूल जाना प्रारंभ किया, बल्कि आगे
आने वाले समाज में महिलाओं को उनका अधिकार
भी दिलाया।
वह जब स्कूल पढ़ने
जाती थीं तो लोग उन पर पत्थर फेंकते थे। इस सब के बावजूद वह अपने लक्ष्य से कभी
नहीं भटकीं और लड़कियों व महिलाओं को शिक्षा का हक दिलाया। उन्हें आधुनिक मराठी
काव्य का अग्रदूत माना जाता है। सावित्रीबाई ने अपने पति समाजसेवी महात्मा
ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 1848 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी।
परिचय
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। उनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे था, तथा माता का नाम लक्ष्मी। मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनका विवाह ज्योतिबा फुले से हो गया था। ज्योतिबा फुले ही सवित्रीबाई के गुरू और समर्थक बने, जिनकी मद्द से उन्होने लड़कियों व महिलाओं के लिए स्कूल की स्थापना की। साथ ही उस स्कूल की पहली महिला प्रिंसिपल बनी।
इतना ही नहीं सवित्रीबाई ने अपने पति के सहयोग से अपने जीवन में महिलाओं के अधिकार जैसे विधवा विवाह, दलित महिलाओं को शिक्षा, छुआछुत मिटाना सब कार्यो को लक्ष्य बना लिया।
सामाजिक
मुश्किलें
वे स्कूल जाती थीं, तो विरोधी लोग उनपर पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक
देते थे। सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये
उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते
में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर,
विष्ठा तक फेंका करते थे। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत
अच्छे से देती हैं।
देश में विधवाओं की दुर्दशा सावित्रीबाई से देखी नहीं जाती थी,
इसलिए 1854 में उन्होंने विधवाओं के लिए एक आश्रय खोला।
उनके इस आश्रय गृह में निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और उन बाल
बहुओं को जगह मिलने लगी जिनको उनके परिवार वालों ने छोड़ दिया था। सावित्रीबाई उन
सभी को पढ़ाती लिखाती थीं। वर्षों के निरंतर प्रयास के बाद 1864 में इसे एक बड़े आश्रय में बदलने में सफल रहीं। उन्होंने इस संस्था में
आश्रित एक विधवा के बेटे यशवंतराव को भी गोद लिया था। इसके साथ उन्होंने लोगो की
मद्द करने के लिए अपने पति के साथ मिलकर एक कुआं खोदा, जिससे लोगो को आसानी से
पानी मिल सके। उनके इस कदम का उस समय खूब विरोध भी हुआ।
प्लेग महामारी
देश मे फैली प्लेग महामारी में सावित्रीबाई ने लोगो की मद्द की
जिसके कारण उन्हें भी यह बिमारी लग गई, और 10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण ही उनकी
निधन हो गया।